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नम॒ इदु॒ग्रं नम॒ आ वि॑वासे॒ नमो॑ दाधार पृथि॒वीमु॒त द्याम्। नमो॑ दे॒वेभ्यो॒ नम॑ ईश एषां कृ॒तं चि॒देनो॒ नम॒सा वि॑वासे ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nama id ugraṁ nama ā vivāse namo dādhāra pṛthivīm uta dyām | namo devebhyo nama īśa eṣāṁ kṛtaṁ cid eno namasā vivāse ||

पद पाठ

नमः॑। इत्। उ॒ग्रम्। नमः॑। आ। वि॒वा॒से॒। नमः॑। दा॒धा॒र॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। नमः॑। दे॒वेभ्यः॑। नमः॑। ई॒शे॒। ए॒षा॒म्। कृ॒तम्। चि॒त्। एनः॑। न॒म॒सा। आ। वि॒वा॒से॒ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:51» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य सदैव नम्र हों, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (नमः) नमस्कार करने योग्य ब्रह्म (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्य को (दाधार) धारण करते उस (उग्रम्) तीव्र (नमः) नमस्कार करने योग्य ब्रह्म का मैं (आ, विवासे) सेवन करूँ (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (नमः) अन्न की सेवा करूँ (नमः) सत्कार वा (नमः) अन्न की (ईशे) इच्छा करूँ उस (नमसा) सत्कार से (एषाम्) इनके (कृतम्) किये उत्तम कर्म (चित्) और (एनः) अनुत्तम कर्म का (इत्) ही (आ, निवासे) योग्य सेवन करूँ ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! सब से नमस्कार करने योग्य परमेश्वर के सहायरूप से हम लोग उत्तम क्रिया को धारण कर और दुष्टता को निवार विद्वानों के लिये हित सिद्ध कर सबका उपकार सदैव करें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्याः सदैव नम्रा भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यन्नमः पृथिवीमुत द्यां दाधार तदहमुग्रं नम आ विवासे देवेभ्यो नम आ विवासे नमो नम ईशे तेन नमसैषां कृतं चिदेन इदा विवासे ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नमः) सत्करणीयम् (इत्) (उग्रम्) तीव्रम् (नमः) अन्नम् (आ) (विवासे) सेवे (नमः) नमस्करणीयम्ब्रह्म (दाधार) दधाति (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि (द्याम्) सूर्य्यम् (नमः) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (नमः) (ईशे) ईष्ट इच्छामि (एषाम्) (कृतम्) (चित्) अपि (एनः) (नमसा) सत्कारेण (आ) (विवासे) ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! सर्वैर्नमस्कणीयस्य परमेश्वरस्य सहायेन वयं सत्क्रियां धृत्वा दुष्टतां निवार्य्य विद्वद्भ्यो हितं सम्पाद्य सर्वोपकारं सदैव कुर्य्याम ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! सर्वांना वंदनीय असणाऱ्या परमेश्वराच्या साह्याने आम्ही उत्तम क्रिया करावी. दुष्टतेचे निवारण करून विद्वानांचे हित करावे. सदैव सर्वांवर उपकार करावा. ॥ ८ ॥